इसके साथ ही शीर्ष अदालत ने फिरेराम की अपील पर हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें हत्या के आरोपी की धमकियों के आधार पर जमानत रद्द करने की याचिका पर विचार करने के बजाय, गवाह को 2018 की योजना का लाभ उठाने को कहा गया था। पीठ ने हाईकोर्ट को जमानत रद्द करने की अर्जी पर चार सप्ताह के भीतर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया।
जमानत सिर्फ रिहा करने वाला यांत्रिक आदेश नहीं : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जमानत को केवल किसी व्यक्ति को हिरासत से रिहा करने वाले यांत्रिक आदेश के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए। शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी इलाहाबाद हाईकोर्ट की उस प्रथा पर की है, जिसमें कई मामलों में धमकी देने के बावजूद आरोपियों की जमानत रद्द करने के बजाय गवाहों को संरक्षण योजना का लाभ उठाने के लिए बाध्य किया जाता है।
जस्टिस जेबी पारदीवाला व जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने कहा िक परेशान करने वाली बात यह है कि सरकारी वकील ने कानून की सही स्थिति बताकर जज को सही दिशा में मदद नहीं की। इसके बजाय उसने खुद आग्रह किया कि गवाह या शिकायतकर्ता को गवाह संरक्षण योजना के तहत राहत दी जाए।
हालांकि उसे आरोपी की जमानत रद्द करने की मांग करनी चाहिए थी क्योंकि उसने जमानत आदेश की शर्तों का उल्लंघन कर डराया-धमकाया था। हम इसकी निंदा करते हैं। पीठ ने कहा, जमानत आदेश की शर्तों के उल्लंघन के आधार पर जमानत देने एवं उसे रद्द करने और इस योजना के तहत गवाह को सुरक्षा प्रदान करने के बीच एक सूक्ष्म, लेकिन प्रासंगिक अंतर है। अदालत ने कहा कि हाईकोर्ट के अनुसार, गवाह संरक्षण योजना एक वैकल्पिक उपाय है।
गवाह संरक्षण योजना
पीठ ने बताया कि गवाह सुरक्षा योजना उपचारात्मक उपाय है, जिसे धमकियों के प्रभाव को बेअसर करने के लिए बनाया गया है। दूसरी ओर, जमानत रद्द करना आपराधिक अदालत का निवारक और पर्यवेक्षी कार्य है, जिसका कर्तव्य यह सुनिश्चित करना है कि मुकदमा धमकियों से अदूषित रहे। पीठ ने कहा, पहला दायित्व राज्य का है, जबकि दूसरा न्यायिक प्रकृति का है, जो न्यायालयों की अंतर्निहित शक्ति से उत्पन्न होता है। एक के स्थान पर दूसरे को प्रतिस्थापित करना न्यायालय के अधिकार को कम करना है। जमानत रद्द करने के प्रावधानों को निरर्थक बनाना है।
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