दीपक शर्मा
नई दिल्ली। अरविंद केजरीवाल का दिल्ली शराब घोटाला केस में जेल जाना उनके राजनीतिक कॅरियर ही नहीं, निजी जिंदगी में भी सबसे बड़ा झटका है। दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ त्याग की मूर्ति के रूप में स्वयं को स्थापित कर दिल्ली में सत्ता विरोधी लहर को कम करने का उनका प्रयास मात्र दिखावा भर है। असल में उनकी मंशा कुछ ओर ही है। जिस प्रकार से दिल्ली विधानसभा चुनाव से पूर्व उनकी पार्टी के बड़े चहरे साथ छोड़ चुके है या छोड़ने की तैयारी में है, उससे साफ़ है कि केजरीवाल दिल्ली में अपनी पार्टी के बड़े चेहरों का आत्मसम्पर्ण भाजपा के समक्ष करने की पूरी तैयारी करे बैठे है।
जहां तक उनके स्वयं का सवाल है तो वह पंजाब जोकि एक पूर्ण राज्य होने के साथ-साथ भाजपा व संघ की प्रयोगशाल नहीं बन सका है, में स्वयं को स्थापित करने की भूमिका में नजर आ रहे है। पंजाब में अपने चहेते नौकरशाहों की तैनाती हो या फिर मंत्रियों अथवा पार्टी नेताओं को निर्देशित करने की बात हो केजरीवाल पूरी सक्रियता दिखा रहे है।
चूंकि हरियाणा में बड़ी उम्मीदे पाले रहे केजरीवाल को जब वहां मायूसी हाथ लगी और उनके उम्मीदवारों को नोटा से भी कम वोट मिले तो उन्हें अपनी घटती ताकत का खुला अहसास हुआ। तभी शायद उन्होंने भाजपा के लिए दिल्ली का मैदान खुला छोड़ देने की अपने अदृश्य आकाओ की बात स्वीकार कर पंजाब का मुख्यमंत्री बनने की राह पर दिखाई देने लगे है।
केजरीवाल की राजनीति शैली को ध्यान से देखा परखा जाए शायद ही किसी समझ आता हो। लेकिन इसके लिए न किसी सूत्र की जरुरत न ही किसी सूत्रधार की। पहले सादगी के नाम पर जनता के मतों का ओर एकतरफा प्रवाह करने का आश्चर्यजनक कारनामा। फिर आरामदायक लग्जरी राजनीति! कुछ समझ आया दिल्लीवालों? नहीं आएगा! इसके लिए भूतकाल में जाना पड़ेगा जब अन्ना हजारे दिल्ली के रामलीला मैदान में लीला रच रहे थे।
जन लोकपाल विधेयक (नागरिक लोकपाल विधेयक) के निर्माण के लिए जारी उनका कथित आंदोलन अपने अखिल भारतीय स्वरूप में 5 अप्रैल 2011 को जंतर-मंतर पर शुरु किए गए अनशन के साथ आरंभ हुआ, जिनमें मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरविंद केजरीवाल, भारत की पहली महिला प्रशासनिक अधिकारी किरण बेदी, प्रसिद्ध लोकधर्मी वकील प्रशांत भूषण, पतंजलि योगपीठ के संस्थापक बाबा रामदेव आदि शामिल थे। संचार साधनों के प्रभाव के कारण इस अनशन का प्रभाव समूचे भारत में फैल गया और इसके समर्थन में लोग सड़कों पर भी उतरने लगे।
लेकिन सवाल तो यह है कि इस आंदोलन का वित्तपोषक कौन था ? क्योंकि जंतर मंतर से रामलीला मैदान तक चला यह आंदोलन बिना किसी वित्त के स्वयंस्फूर्त देशव्यापी हो पाना संभव नहीं था। इस आंदोलन ने कांग्रेस मनमोहन सरकार को जड़ से उखाड़ फेंका जिसके बाद से कांग्रेस वनवास काट रही है।
ऐसे में सवाल है कि इस आंदोलन के पीछे कौन था? तो बता दे ये सब भाजपा मंडली के सबसे प्रमुख व लुटियंस दिल्ली के सरगना अरुण जेटली थे। अन्ना जेटली के इशारे पर दिल्ली आये बाबा रामदेव को उनकी मदद के लिए आगे किया गया। आंदोलन के बाद अन्ना के सबसे प्यारे शिष्य अरविंद केजरीवाल ने जेटली की व सुझाव पर आम आदमी पार्टी का गठन 15 वर्षो से दिल्ली में शीला दीक्षित नेतृत्व वाली विकासोन्मुख कांग्रेस की अखंड हो चली सत्ता को उखाड़ फेकना था। इसके लिए भाजपा ने उन्हें भरपूर सहयोग किया। केजरीवाल जोकि अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के मुख्य चेहरा बन चुके थे ने शीला दीक्षित पर तमाम भ्रष्टाचार के तमाम आक्षेप लगाए और दावा किया कि उनके पास वह तमाम सबूत है जिनमें उनके काले कारनामे दर्ज है। लेकिन दस वर्ष सत्ता भोगने के बावजूद वह कभी भी उन दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं कर पाए। लेकिन वर्ष 2018-19 में जेटली की बीमारी और बाद में उनकी मृत्यु के चलते केजरीवाल की डोर भाजपा के हाथों छूट गई और वे बेलगाम से दिखने लगे। लेकिन ऐसा नहीं था। भले ही जेटली नहीं रहे लेकिन उनके पुराने आंदोलन मित्र रहे बाबा रामदेव उन्हें भाजपा के लिए हांकने लगे। भाजपा को जहां लगता कि कांग्रेस मजबूत है वहां उनको मजबूत उम्मीदवार विधानसभाओं के चुनावों में उतरवा लेती थी। इसका लाभ भी उन्हें मिलने लगा। लेकिन जब इंडिया गठबंधन बना और केजरीवाल उसमें शामिल हो आजाद पंछी बन उड़ान भरने की तैयारी करने लगे तो जीरो टॉलरेंस की राजनीति करने वाली मोदी-शाह की जोड़ी की त्योरियां चढ़ गई और उन्हें तिहाड़ यात्रा करनी पडी।
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निकले केजरीवाल पर लगे आबकारी घोटाले के आरोपों ने दिल्लीवालों को एक दशकीय तंद्रा से बाहर निकाला तो उन्हें सब साफ दिखाने लगा कि मुफ्त सुविधाओं को बाँटने की राजनीति कर रहे केजरीवाल ने पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित व पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों द्वारा दिल्ली के विकास के लिए किये गए कार्यो पर लीपापोती करने के अतिरिक्त मात्र करोड़ों उपयों की विज्ञापनबाजी की है।
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